• Saturday, April 27, 2024
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जांच एजेंसी के सामने, कसूरवार से पीड़ित बनने का खेल

जांच एजेंसी के सामने, कसूरवार से पीड़ित बनने का खेल

सोचिए, नहीं तो एक दिन हर व्यक्ति भ्रष्ट अधिकारियों से ब्लैकमेल होने लगेगा

प्रवेश गौतम (द करंट स्टोरी, भोपाल) मध्य प्रदेश में सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध कई मामलों में जांच चल रही है। आलम यह है की प्रदेश सरकार इन अधिकारियों पर अभियोजन की अनुमति नहीं दे रही है। सरकार द्वारा अनुमति न देने के कई कारण हो सकते है , जिनमे राजनीतिक के अलावा अन्य कारण भी शामिल हैं। पिछले कुछ सालों में भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा एक अलग ही पैतरा अपनाया जा रहा हैं। जांच एजेंसी के सामने भ्रष्ट अधिकारी अब स्वयं को कसूरवार न मानते हुए पीड़ित बताने लगे हैं। यानि जिसकी शिकायत हुई है वह जांच एजेंसी के सामने शिकायतकर्ता को ही कसूरवार ठहराने में लगा हुआ है।

सिस्टम के अंदर, भ्रष्टाचार इस कदर अपनी जड़ें जमा चुका है की अब भ्रष्टाचार की जांच ही बेमानी हो चली है। और इस जांच में सबसे अहम् है, दांव उल्टा कर देना। यानि शिकायत कर्ता पर ही आरोप मढ़ देना। इसको ऐसे समझिये:

एक सरकारी अधिकारी द्वारा पिछले लगभग 3 सालों से अपने पद का दुरूपयोग किया जा रहा था। यहाँ तक की नियम तोड़ने वालों को नोटिस देकर भ्रष्ट अधिकारी द्वारा डराया जा रहा था। और नोटिस देने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की जा रही थी। यहाँ तक की शिकायत करने पर भी उक्त अधिकारी द्वारा नियम तोड़ने वालों को बचाया जा रहा था। इसी अधिकारी द्वारा भ्रष्ट तंत्र के संरक्षण में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल तक को गुमराह किया जा रहा था। झूठी रिपोर्ट बनाकर नियम तोड़ने वालों को बचाने का खेल चल रहा था। अब यह तो स्ववाभिक है की कोई भी अधिकारी बिना किसी स्वार्थ या लाभ के झूठी रिपोर्ट नहीं बनाएगा और न ही नियम तोड़ने वालों को संरक्षण देगा। जब इस तरह की संदेहास्पद कार्यप्रणाली का खुलासा हुआ तो उक्त भ्रष्ट अधिकारी पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा। ऐसे में उक्त भ्रष्ट अधिकारी की शिकायत पहुंची एक जांच एजेंसी के पास। फिर क्या था, उक्त भ्रष्ट अधिकारी ने खेला वही खेल जो आजकल प्रचलित है। यानि अपने संबंधों का उपयोग करके जांच एजेंसी के आला अधिकारियो  के पास पहुंचा।  जांच एजेंसी के सामने भ्रष्ट अधिकारी ने दांव चला की शिकायत कर्ता द्वारा उसे ब्लैकमेल किया जा रहा है, अनैतिक मांग की पूर्ति न करने के कारण यहाँ शिकायत हुई है। फिर क्या था जांच एजेंसी के साहब ने भ्रष्ट अधिकारी के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए जांच में सहयोग का वादा कर दिया। पर इस पूरे मामले में जांच एजेंसी के साहब ने संभवतः इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया होगा की, जो शिकायत हुई है वह कितनी सत्य है व इसमें जो तथ्य बताये गए हैं वह सही हैं या गलत।

उपरोक्त उदाहरण में भ्रष्ट अधिकारी ने अपने उच्च पदस्थ प्रभावशाली अधिकारियों के संरक्षण में जांच एजेंसी को गुमराह करने का पूरा प्रयास किया।  और यही हो गया वह खेल, यानि भ्रष्ट अधिकारी बन गए पीड़ित और शिकायत कर्ता कसूरवार। इस पूरे मामले में शिकायत की सत्यता की जांच कौन करेगा और यह कैसे साबित होगा की कौन कसूरवार है और कौन पीड़ित ?

जांच एजेंसियों पर अत्यधिक दबाव है। जनशक्ति कम है और काम ज्यादा। पर इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता की केवल सिफारिश पर ही शिकायत कर्ता की निष्ठा पर सवाल खड़े किए जाएं। ऐसे एक नहीं कई मामले हैं जहाँ शिकायत कर्ता की मंशा पर संदेह किया जाता है। जबकि होना यह चाहिए था की जिस भ्रष्ट अधिकारी की शिकायत हुई है उससे उस शिकायत पर उसक तथ्यात्मक पक्ष लिया जाना चाहिए। वहीं केवल यह कह देने से की शिकायत कर्ता की मंशा संदेहास्पद है, से राम राज्य नहीं आएगा। जांच एजेंसियों को शिकायत कर्त्ता को पूर्ण संरक्षण व सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए, जिससे प्रदेश के सरकारी तंत्र में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों पर ठोस करवाई हो सके।

जांच एजेंसियों पर भरोसा करके ही भारत का आम नागरिक, शिकायत कर्ता बनकर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सहयोग करता है। यदि जांच एजेंसी शिकायत कर्ता को संरक्षण व सुरक्षा प्रदान नहीं करेगी तो वो दिन दूर नहीं जब इस देश का आम नागरिक भ्रष्टाचार को देखकर चुप हो जाएगा।  इसमें कोई शंका नहीं है की कानून के रक्षक ही भक्षक बन गए तो इस देश की हर शाख पर उल्लू नज़र आएगा और आम आदमी घुट घुट कर जीने को मजबूर हो जाएगा। हालाँकि वर्तमान हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। यहां कई लोग भ्रष्टाचार को देखकर आँख बंद कर लेते हैं। किसी से पूछो की शांत क्यों हो तो जवाब आएगा घर चलाना है कौन इन सब झंझटों में पड़े। इस नज़रिये का नतीजा यह हो रहा है की  लगभग हर सरकारी कार्यालयों में रिश्वत जैसे अनिवार्य सी हो गई है। क्योंकि आम आदमी को शिकायत कर्ता बनने में डर लगने लगा है। कई मामलों में जांच एजेंसी शिकायत कर्ता की मंशा पर ही सवाल खड़े कर देती है। और जो भ्रष्ट है वह मज़े से सरकारी पद का दुरूपयोग करते हुए झूठ लिख रहा है और नियम तोड़ने वालों से अपनी जेब भर रहा है।

ऐसा लगता है मानो की भ्रस्टाचार समाप्त करने के उद्देश्य से शिकायत कर्ता जब शिकायत करता है तो उसे ही कसूरवार ठहराने की कोशिश होने लगती है। उसे ब्लैकमेलर जैसे शब्दों से सम्बोधित किया जाने लगता है। जबकि ज्यादातर मामलों में ब्लैकमेलिंग का कोई प्रमाण नहीं होता। वहीं भ्रष्ट अधिकारी जिसकी शिकायत हुई है वह कसूरवार से पीड़ित बनकर मौज करने लगता है। जबकि गौर किया जाए तो भ्रष्ट अधिकारी ही असलियत में एक ब्लैकमेलर होता है। जो उसके कार्यों को करने के लिए रिश्वत मांगता है, नोटिस देकर ब्लैकमेल करता है। बाद में रिश्वत खाकर नोटिस को कचरे के डब्बे में डाल देता है। और यह नोटिस का खेल हर त्यौहार के पहले होता है। इतना ही नहीं कार्यालय में आये आवेदकों से रिश्वत लेता है और नियम विरुद्ध अनुमति जारी कर देता है। और जो रिश्वत नहीं देता उसकी फाइल को रिजेक्ट कर देता है। अब आप ही सोचिये क्या इस तरह की हरकत करने वाला अधिकारी ब्लैकमेलर नहीं है ? रिश्वत के एवज में नोटिस देकर डराना और फिर कोई करवाई न करना। इसे ब्लैकमेलिंग नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। भ्रष्टाचार के लिए ब्लैकमेलिंग करने वाले ऐसे अधिकारियों पर लगाम लगाने की आवश्यकता है। न की शिकायत कर्त्ता की मंशा को ही संदेहास्पद बनाने की।

जांच एजेंसी के अधिकारियों को यह समझना होगा की कौन कसूरवार है और कौन पीड़ित। केवल सिफारिश के आधार पर हर शिकायत कर्ता को ब्लैकमेलर घोषित नहीं किया जा सकता। जांच करके तथ्यों को समझ कर प्रमाण देखकर ही निर्णय लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले समय में हर व्यक्ति इस तरह के अधिकारियों से ब्लैकमेल होता रहेगा। क्योंकि कुछ लोग ही हिम्मत दिखाकर शिकायत करते हैं और भ्रष्टाचार की पोल खोलते हैं। यदि इनको भी डराया गया तो देश में अराजकता फ़ैल जाएगी। लोकतंत्र में हर नागरिक की जिम्मेदारी होती है की वह प्रत्येक गलत कार्य या भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाए और भ्रष्ट अधिकारियों की ब्लैकमेलिंग बंद हो।

निर्णय आपको लेना है।
 

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