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तपोभूमि नर्मदा का तपस्या क्षेत्र और वर्तमान परिस्थिति

आलेख Aug 17, 2017       7867
तपोभूमि नर्मदा का तपस्या क्षेत्र और वर्तमान परिस्थिति

प्रभाकर केलकर। यह सर्व विदित है कि मां नर्मदा भारत कि प्राचीन और पवित्र नदी है, जिसे 'रेवा माई' के नाम से भी जाना जाता है। नर्मदा जी भारत वर्ष की गोदावरी ओर कृष्णा नदी के बाद तीसरी सबसे लंबी नदी हैं, मां नर्मदा को मध्यप्रदेश कि जीवनदायनी अर्थात् जीवन रेखा भी कहा जाता है।

मैकल (विंध्य) पर्वत अमरकंटक के शिखर से उद्गमित होकर पश्चिम दिशा की ओर बहने वाली एक मात्र नदी है। मां नर्मदा ही एकमात्र ऐसी नदी है, जिसकी परिक्रमा की परम्परा हजारों वर्षों से चली आ रही है। 1310 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी मध्यप्रदेश और गुजरात राज्य कि प्रमुख नदी है जो उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। नर्मदा जी के दोनों ओर के तटों पर अमरकंटक सहित नेमावर, ओंकारेश्वर, गुरूकृपा आश्रम झीकोली, शुक्लतीर्थ आदि कई प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं।

हजारों वर्षों से माँ नर्मदा नदी के उत्तर-दक्षिण दोनों तटों पर हजारों—लाखों ऋषि-मुनियों ने तपस्या और साधना की है, जिसके कारण आध्यात्मिक, धार्मिक व सांस्कृतिक रूप से भारत पुष्ट होता आया है। ऐसे तपस्वियों में महर्षि पतंजलि के शिष्य गोविंद पाद भी हैं जिन्होंने लगभग हजार वर्ष समाधि अवस्था में नर्मदा मां के तट पर तप किया था। उन्होंने आदि शंकराचार्य जी को ब्रह्मसूत्र का ज्ञान देते हुए मां नर्मदा नदी के किनारे तपस्या करने का उपदेश दिया था। ओंकारेश्वर में आदि शंकराचार्य जी कि गुफा इसका प्रमाण है। यह सबको मालूम है कि दक्षिण से शंकराचार्य जी ओंकारेश्वर में नर्मदा जी के तट पर तपस्या करने आए थे। यह हमारे लिये सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और हजारों वर्षों से नर्मदा जी के किनारे ऋषि मुनि तपस्या करते रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए मार्कण्डेय पुराण, नर्मदा पुराण और अर्वाचीन समय के श्री शैलेन्द्र नारायण घोषाल की तपोभूमि नर्मदा पुस्तकों में इसके प्रमाण मिलते हैं।

आज भी हजारों-हजार ऋषि- मुनि नर्मदा तटों पर बैठकर तपस्या करते हैं जिनके तप और बल से नर्मदा के तट व क्षेत्र सिद्ध और तपोभूमि बने हुए हैं। नर्मदा जी के किनारे परिक्रमा करने वालों को इसके प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं। समय कि आवश्यकतानुसार नर्मदा जी पर बडे़े- बड़े बांध बनाए गए हैं जिसके कारण नर्मदा जी के दोनों तटों के अनेक तीर्थ एवं घाट डूब में आ गये, उदाहरण के लिये निसरपुर का कोटेश्वर घाट, शूल पाणेश्वर आदि हमारे सामने हैं। एकांत स्थानों की कमी से संतों की तपस्या में विघ्न एवं बाधाएं आ रहीं है, धारा जी घाट जहां पर शिवलिंग स्वतः निर्मित होते थे और धाराजी के दोनों तटों पर अनेक गुफाएं थीं, जहां अनेक ऋषि-मुनि तपस्या करने आते थे, ये सभी स्थान धीरे-धीरे विलुप्त हो गये। आधुनिक प्रगति के नाम हो रहे बदलाव से भारतीय संत परंपरा की साधना व तपस्या भी खिन्न होती जा रही है।

आज कि वर्तमान व्यवस्था में नर्मदा जी के दोनों तटों पर क्या परिस्थिति है ..? इस परिद्श्य का आंकलन करना समीचीन होगा।

समय कि मांग के अनुसार नर्मदा मैया कि पवित्रता, अविरल प्रवाह आदि को बनाये रखने के लिये नर्मदा जी के दोनों किनारों पर बने मठ, मन्दिर सफाई हेतु हटाये जा रहे हैं। लेकिन इस अभियान के कारण एकांत वनांचलों में बैठे अनेक फक्कड़, अकिंचन साधकों को भी स्थान छोड़ने पर विवश किया जा रहा है, ये गंभीर और चिंताजनक विषय बन गया है। ऐसे दृश्यों को क्या उपमा दी जाये पाठक स्वयं निर्णय करें। उदाहरण के लिये देवास जिले में धारडी अथवा धारेश्वर का एक किनारा उत्तर में देवास जिले में है तो दूसरा दक्षिण किनारा खरगोन जिले के घनघोर जंगल में आता है, इस तट या किनारे पर एक संत अनेक वर्षों से घास-फूस कि कुटिया बनाकर तपस्यारत् हैं उनकी कुटिया नर्मदा तट से 100 मीटर कि दूरी में आती है, जो ऊंचाई पर भी है, वर्तमान में वह संत चर्तुमास् में 4 माह की मौन साधना में रत हैं। आये दिन वन विभाग के अधिकारी उन्हें परेशान कर साधना में विघ्न डालने आते हैं, जो इसी साधना समय में उन्हें अपना स्थान छोड़ने पर विवश कर रहे हैं। ये उदाहरण बताता है कि तपोभूमि मां नर्मदा जी को किस दिशा में ले जाया जा रहा है इन परिस्थितियों से खिन्न होकर साधु-संत न तपस्या करेंगे, न संस्कृति का संवर्धन होगा और न ही नर्मदा जी के किनारे हिन्दू धर्म व संतों के श्रद्धा के स्थान रहेंगे, न संतों का समागम होगा जिससे भारतीय संत परंपरा को भी नुकसान हो रहा है।

यह गंभीर चिंतन का विषय है कि आखिर इस तरह कि विकट परिस्थिति से कैसे निपटा जाए, इस गंभीर विषय में हमारे कुछ सुझाव हैं जो नीचे दिए जा रहे हैं।

1. नर्मदा जी के दोनों तटों की 500 मीटर भूमि को तपोभूमि घोषित किया जाए।

2. इस तपोभूमि क्षेत्र में अंकिचन भाव से (बिना पक्का निर्माण किये) कुटिया बनाकर तपस्या या साधना करने की संतों को अनुमति दी जाना चाहिए।

3. शासन चाहे तो ऐसे संतों से कोई अनुबंध भी कर सकती है जिसमें जीव जंतुओं से बचने के लिये सिर्फ सीमेंट का चबूतरा बनाने की अनुमति होगी, लेकिन अन्य किसी प्रकार का पक्का निर्माण नहीं कर सकेंगे, किसी प्रकार का मालिकाना हक नही होगा।

4. किसी की समाधी नही बनेगी अन्य किन्हीं मेलों का आयोजन न हो जिससे किसी भी प्रकार से नर्मदा जी प्रदूषित हों या अन्य कोई हानी हो, केवल साधु संतों के समागम की अनुमति होनी चाहिए।

5. किस अखाड़े व परंपरा से साधु का संबंध है ये भी पता कर सकते हैं।

6. सामान्य सुविधाएं सरकार उपलब्ध कराये।

इस प्रकार से संत भी शांति से तपस्या कर सकेंगे व प्रशासन और सरकार को भी इनसे सम्बंधित पूर्ण  जानकारी होगी। धर्म, संस्कृति के प्रति संवेदनशील सरकार से विनम्र अनुरोध और अपेक्षा है कि भारतीय संस्कृति व संतों की तपस्या और साधना से भारत राष्ट्र सबल होता आया है, इस मामले को गंभीरता से लेकर यथाशीर्घ दिशा- निर्देश जारी करें। अन्यथा साधु संतों की रक्षा करने में समाज सक्षम है।
(उपरोक्त विचार लेखक के हैं। लेखक ने स्वयं नर्मदा जी की परिक्रमा की है एवं वर्तमान में भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)

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